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Blog / 28 Apr 2019

(राष्ट्रीय मुद्दे) नक्सलवाद - समस्या और निदान (Naxalism: Problem and Solution)

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(राष्ट्रीय मुद्दे) नक्सलवाद - समस्या और निदान (Naxalism: Problem and Solution)


एंकर (Anchor): कुर्बान अली (पूर्व एडिटर, राज्य सभा टीवी)

अतिथि (Guest): नरेश चंद्र सक्सेना (पूर्व सचिव, योजना आयोग), प्रोफ़ेसर आनंद प्रधान (लेखक, पत्रकार)

चर्चा में क्यों?

हाल ही में, छत्तीसगढ़ राज्य के दंतेवाड़ा जिले में नक्सलियों द्वारा एक स्थानीय विधायक के काफिले पर हमला कर दिया गया था। ये हमला लोकसभा चुनाव के प्रथम चरण से ऐन वक़्त पहले किया गया जिसमे इम्प्रोवाइज्ड एक्सप्लोसिव डिवाइस यानी आईईडी का इस्तेमाल किया गया था। इस हमले में विधायक, उनके वाहन चालक और तीन सुरक्षा कर्मियों की मौत हो गई।

इसके अलावा, चुनाव के मद्देनज़र, कई अन्य जगहों पर नक्सलियों द्वारा अव्यवस्था फैलाने की कोशिश की गई।

नक्सलवाद क्या है?

कुछ कम्युनिस्टों द्वारा गुरिल्ला युद्ध के ज़रिए राज्य को अस्थिर करने के लिए हिंसा का इस्तेमाल किया जाता है। इसे ही नक्सलवाद कहा जाता है। भारत में ज्यादातर नक्सलवाद माओवादी विचारधाराओं पर आधारित है। इसके ज़रिए वे मौजूदा शासन व्यवस्था को उखाड़ फेंकना चाहते हैं और लगातार युद्ध के ज़रिए 'जनता का सरकार' लाना चाहते हैं।

कहाँ कहाँ है नक्सलवाद?

गृह मंत्रालय ने रेड कॉरिडोर यानी लाल गलियारा को एक बार फिर से चिन्हित करना शुरू किया है। लाल गलियारा भारत के पूर्वी भाग का एक ऐसा क्षेत्र है जहाँ नक्सलवादी उग्रवादी संगठन सक्रिय हैं। मंत्रालय के मुताबिक़, देश के 11 राज्यों में फैले नक्सलवाद से प्रभावित ज़िलों की संख्या 106 से घटाकर 90 कर दी गई है।

इस सूची में 30 सबसे अधिक प्रभावित ज़िलों को भी शामिल किया गया है, जिसमें पिछली सूची के मुक़ाबले 6 ज़िलों को कम किया गया है। हालांकि इस दौरान कुछ नए ज़िलों में भी नक्सल गतिविधियां देखी गईं हैं।

नक्सलवाद की वैचारिक पृष्ठभूमि

शुरुआत में, भारत में जहां वामपंथी आंदोलन पूर्व सोवियत संघ से प्रभावित था वहीँ आज का माओवाद है चीन से प्रभावित है। ये मौजूदा माओवाद हिंसा और ताकत के बल पर समानान्तर सरकार बनाने का पक्षधर है। इसके अलावा अपने मक़सद के लिए ये किसी भी प्रकार की हिंसा को उचित मानते हैं।

माओ के दो सिद्धांत थे- पहला ये कि राजनीतिक सत्ता बन्दूक की नली से निकलती है और दूसरा राजनीति रक्तपात रहित एक युद्ध है और युद्ध रक्तपात युक्त एक राजनीति है।

भारतीय राजनीति में माओवादी विचारधारा की धमक पहली बार हैदराबाद रियासत के विलय के समय देखने को मिली थी। उसके बाद 1960-70 के दशक में नक्सलबाड़ी आन्दोलन के रूप में ये विचारधार फिर सामने आयी।

नक्सलवाद की शुरुआत

भारत में नक्सली हिंसा की शुरुआत 1967 में पश्चिम बंगाल में दार्जिलिंग ज़िले के नक्सलबाड़ी गाँव से हुई थी। नक्सलबाड़ी गाँव के नाम पर ही उग्रपंथी आंदोलन को नक्सलवाद कहा गया।

ज़मींदारों द्वारा छोटे किसानों पर किये जा रहे के उत्पीड़न पर अंकुश लगाने के लिए भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के कुछ नेता सामने आए। इन नेताओं में चारू मजूमदार, कानू सान्याल और कन्हाई चटर्जी का नाम शामिल है।

ये आंदोलन चीन के कम्युनिस्ट नेता माओ त्से तुंग की नीतियों पर आधारित था, इसीलिये इसे माओवाद भी कहा जाता है। नक्सलवादियों का मानना था कि भारतीय मज़दूरों और किसानों की दुर्दशा के लिये सरकारी नीतियाँ ही जिम्मेदार हैं। और इसका एक मात्र रास्ता हिंसा ही है।

नक्सलवाद के चरण

प्रथम चरण (1967 से 1980 तक): इसका प्रथम चरण मार्क्सवादी-लेनिनवादी-माओवाद पर आधारित था। इसका मतलब ये ‘‘वैचारिक और आदर्शवादी” आंदोलन का चरण रहा है। इस चरण में नक्सलवादियों को ‘‘ज़मीनी अनुभव तथा अनुमान की कमी”देखने को मिली। इस चरण में नक्सलियों को एक ‘‘राष्ट्रीय पहचान” मिली लेकिन वे एक राष्ट्रीय प्रभाव नहीं डाल पाए।

18 मार्च 1967 से जारी इस सशस्त्र गतिविधि को 1971 तक सुरक्षा बलों ने ध्वस्त कर दिया। इसके बचे नेताओं को भूमिगत होकर काम करना पड़ रहा था। आपातकाल के दौरान् नक्सली आंदोलन खत्म हो गया था। इसके अधिकांश नेता जेल में बंद हो चुके थे।

दूसरा चरण (1980 से 2004 तक): ये दौर ज़मीनी अंदाज़ा, ज़रुरत और अनुभव के आधार पर चलने वाला क्षेत्रीय नक्सली गतिविधियों का दौर था। इस चरण में नक्सलवाद का व्यवहारिक विकास हुआ। इनका क्षेत्रीय प्रभाव और विस्तार भी देखने को मिलता है।

तीसरा चरण - (2004 से जारी): इस चरण में नक्सलियों का ‘‘राष्ट्रीय स्वरूप” उभरा और ‘‘विदेशी संपर्क”बढ़े। और अब नक्सलवाद राष्ट्र की ‘‘सबसे बड़ी आंतरिक चुनौती”बनकर उभरा।

साल 2004 नक्सली संघर्ष की सैन्य और राजनीतिक ताकत और जनाधार के प्रदर्शन का साल रहा। इस दौरान संसदीय जनतंत्र के ख़िलाफ चुनाव बहिष्कार और नक्सलियों का दक्षिण एशिया के सशस्त्र वामपंथी संगठनों के बीच बढ़ते समन्वय को भी देखा जा सकता था।

देश की नक्सली राजनीति में भी साल 2004 में एक नया मोड़ तब आया जब पीपुल्सवार और एमसीसीआई का एकीकरण हुआ और एक नई पार्टी बनी- भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी)।

नक्सलवाद के कारण

नक्सलवाद के कारणों को हम चार व्यापक बिंदुओं के तहत बांट सकते हैं:

जल जंगल जमीन:

  • भूमि सुधार क़ानूनों का दुरुपयोग,
  • सरकारी और सामुदायिक जमीनों को हड़पना
  • बिना उचित हर्जाने और पुनर्वास व्यवस्था के भूमि अधिग्रहण
  • सदियों से चली आ रही आदिवासी जंगल व्यवस्था को बिगाड़ देना

विकासात्मक कार्यों में कमी:

  • बेरोजगारी
  • गरीबी
  • मूलभूत सुविधाओं का अभाव
  • शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी

शासन व्यवस्था की असफलता:

  • प्रशासनिक अक्षमता
  • अकुशल और उत्साहविहीन सरकारी कर्मचारियों का ढुलमुल रवैय्या
  • अव्यवस्था और भ्रष्टाचार
  • सरकारी योजनाओं का जमीनी स्तर पर क्रियान्वयन न होना
  • स्थानीय लोगों के कल्याण के लिए बने नियम कानूनों की धज्जियां उड़ाना

सामाजिक तिरस्कार और उपेक्षा

  • मानवाधिकारों का उल्लंघन
  • व्यक्ति के गरिमा का हनन
  • समाज के मुख्यधारा से अलगाव
  • सरकार तथा शासन के प्रति असंतोष

क्या चाहते हैं नक्सली और कैसे काम करते हैं?

नक्सलियों का मक़सद राज्य को अस्थिर बनाना है और वे मौजूदा व्यवस्था को सही नहीं मानते हैं। वे एक व्यापक जनाधार तैयार करके 'जनता का सरकार' लाना चाहते हैं और इसके लिए वे हिंसा का रास्ता अख्तियार करते हैं।

  • नक्सली ज्यादातर सुरक्षाबलों और उनके ठिकानों पर हमला करते हैं।
  • इसके अलावा वे कुछ इंफ्रास्ट्रक्चर जैसे कि रोड, रेलवे और पावर हाउस को निशाना बनाते हैं।
  • साथ ही वे सरकार समर्थक सिविल सोसाइटी और गैर सरकारी संगठनों पर भी हमला करते हैं और इसके जरिए अपने विचारधारा का प्रचार करने का काम करते हैं।
  • वे दूसरे विकासात्मक कार्यों जैसे कि सड़क, अस्पताल और स्कूलों का निर्माण आदि का भी विरोध करते हैं।
  • विकासात्मक कार्यों का विरोध करके और राज्य के खिलाफ मोर्चा खोलके नक्सली इन सारी परिस्थितियों का फायदा उठाते हैं।
  • नक्सलवादी लोगों से टैक्स वसूलते हैं, तथाकथित वर्ग शत्रुओं का सफाया करते हैं और अपनी अदालतें बैठाकर तथाकथित न्याय करते हैं।
  • नक्सलियों के इन कामों में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सक्रिय तमाम संगठन भी मदद कर रहे होते हैं।
  • इनका गठजोड़ पूर्वोत्तर भारत में सक्रिय में उग्रवादी संगठनों, नेपाल, चीन, पाकिस्तान और दक्षिण पूर्व एशिया में सक्रिय उग्रवादी संगठनों के साथ भी देखने को मिलता है।

साल 2004 के बाद नक्सली रणनीति में क्या बदलाव आया?

साल 2004 से नक्सलियों ने तीन अलग-अलग रणनीतियों के ज़रिए भारत की संसदीय स्वरुप को उखाड़ फेंकने का खाका बनाया।

  • जिसमे पहला अपने लोगों को पीपुल्स लिबरेशन गुरिल्ला आर्मी यानी पीएलजीए में भर्ती करना।
  • दूसरा माओवादियों का लक्ष्य देश के तमाम क्षेत्रों पर कब्ज़ा करना है और धीरे-धीरे शहरी केंद्र का घेराव करना है।
  • तीसरा शहरी आबादी के कुछ खास वर्गों को संगठित करके एक 'फ्रंट संगठन' तैयार करना है। जिसका मक़सद पेशेवर क्रांतिकारियों की भर्ती, विद्रोह के लिये पैसा जुटाना और भूमिगत कार्यकर्त्ताओं के लिये शहरी ठिकाना बनाना है।

क्या नक्सली समाज के निचले तबके के असल मसीहा हैं?

अगर हम नक्सलियों के विचारधारा पर नजर डालें तो ऐसा लगता है कि नक्सलियों का मक़सद गरीब परिवारों को और समाज के निचले तबके को उनका हक दिलाना है। वे 'जनता का सरकार' तो बनाना चाहते हैं, लेकिन जमीनी हकीकत इससे कुछ अलग ही है।

  • उनका असल मक़सद सामाजिक उत्थान नहीं, बल्कि सत्ता हथियाना है। क्योंकि अगर वे सामाजिक उत्थान के कामों में लगे होते तो वे सरकार द्वारा चलाए जा रहे विकासात्मक कार्यों में अड़चनें न पैदा करते, बल्कि वे इसमें और मदद करते।
  • हिंसा का रास्ता अख्तियार करने के बजाय वे लोकतांत्रिक प्रक्रिया को स्वीकार करते और इसका हिस्सा बन करके अपनी सामाजिक उत्थान के मक़सद को पूरा करते।
  • दरअसल वे चाहते हैं कि उनके प्रभुत्व वाले इलाके में गरीबी और समस्या बनी रहे ताकि उनको अपना जड़ जमाने में सहूलियत रहे। क्योंकि अगर वहां पर विकास हो गया तो इनको कोई मुद्दा नहीं मिलेगा। और फिर इनका जनसमर्थन कमज़ोर हो जाएगा।

नक्सलियों को पैसा कहां से मिलता है?

नक्सलियों के पैसे का मुख्य स्रोत वसूली करना है। जब बड़ी कंपनियां या सरकार कोई प्रोजेक्ट लेकर नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में जाती है तो नक्सली इन कंपनियों से और सरकारी संगठनों से मोटी रक़म कमाते हैं। इसके लिए वे कभी अपहरण तो कभी हत्या जैसे जैसे कदम भी उठाते हैं।

  • इसके अलावा नक्सली क्षेत्र के धनाढ्य और उच्च वर्ग से भी पैसा वसूलते हैं।
  • नक्सलियों की अंतरराष्ट्रीय स्तर पर और दूसरे उग्रवादी संगठनों से भी फंडिंग होती है।

सरकार कैसे निपट रही है इन नक्सलियों से?

अमूमन कानून-व्यवस्था राज्य सूची का विषय होता है यानी राज्य में कानून और व्यवस्था बनाए रखने का काम संबंधित राज्य का होता है। लेकिन नक्सलवाद की विकटता को देखते हुए साल 2006 में तत्कालीन प्रधानमंत्री ने इसको राष्ट्र की आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ी चुनौती बताया। उसके बाद गृह मंत्रालय में नक्सलवाद की समस्या से निपटने के लिए एक अलग प्रभाग बनाया गया।

साथ ही इससे समस्या से निपटने के लिये बहुआयामी रणनीति पर काम किया जा रहा है। इसमें सुरक्षा और विकास से जुड़े क़दम और आदिवासी समेत दूसरे कमज़ोर वर्ग के लोगों को उनका अधिकार दिलाने से जुड़े कदम शामिल हैं।

  • सरकार वामपंथी चरमपंथ से प्रभावित क्षेत्रों में बुनियादी ढाँचे, कौशल विकास, शिक्षा, ऊर्जा और डिजिटल कनेक्टिविटी के विस्तार पर काम कर रही है।
  • जून, 2013 में आजीविका योजना के तहत ‘रोशनी’ नामक विशेष पहल की शुरूआत की गई थी ताकि सर्वाधिक नक्सल प्रभावित ज़िलों में युवाओं को रोज़गार के लिये प्रशिक्षित किया जा सके।
  • पिछले वर्ष नक्सल समस्या से निपटने के लिये केंद्र सरकर ने आठ सूत्रीय 'समाधान’नाम से एक कार्ययोजना की शुरुआत की है।
  • सबसे अधिक नक्सल प्रभावित सभी 30 ज़िलों में जवाहर नवोदय विद्यालय और केंद्रीय विद्यालय संचालित किये जा रहे हैं।
  • हिंसा का रास्ता छोड़कर समर्पण करने वाले नक्सलियों के लिए सरकार पुनर्वास की भी व्यवस्था करती है।

विकास कामों के अलावा सरकार ने नक्सलियों के खिलाफ दूसरे अभियान भी चलाये थे:

स्टेपेलचेज अभियान: यह अभियान साल 1971 में चलाया गया। इस अभियान में भारतीय सेना और राज्य पुलिस ने भाग लिया था। इस अभियान के दौरान लगभग 20,000 नक्सली मारे गए थे।

ग्रीनहंट अभियान: यह अभियान साल 2009 में छत्तीसगढ़, झारखंड, आंध्र प्रदेश और महाराष्ट्र में चलाया गया था। इस अभियान को यह नाम मीडिया द्वारा दिया गया था।

प्रहार: 3 जून, 2017 को छत्तीसगढ़ राज्य के सुगमा जिले में सुरक्षा बलों द्वारा अब तक के सबसे बड़े नक्सल विरोधी अभियान ‘प्रहार’को प्रारंभ किया गया। इस अभियान में केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल के कोबरा कमांडो, छत्तीसगढ़ पुलिस, डिस्ट्रिक्ट रिजर्व गार्ड तथा इंडियन एयरफोर्स के एंटी नक्सल टास्क फोर्स ने भाग लिया। खराब मौसम के कारण 25 जून, 2017 को इस अभियान को रोक दिया गया।

क्यों ख़त्म नहीं हो पा रही है नक्सल समस्या?

दरअसल नक्सलवाद सामाजिक-आर्थिक कारणों से उपजा था। आदिवासी गरीबी और बेरोज़गारी के कारण एक निचले स्तर की जीवन शैली जीने को मज़बूर हैं। स्वास्थ्य-सुविधा के अभाव में गंभीर बीमारियों से जूझते इन क्षेत्रों में असामयिक मौत कोई आश्चर्य की बात नहीं। आदिवासियों का विकास करने के बजाय, उन्हें शिक्षा, चिकित्सा सेवा और रोजगार देने के बजाय उन्हें परेशान करने के नए-नए कानून बनाए जाते हैं।

आर्थिक असमानता, भ्रष्टाचार, खेती की दुर्दशा अभी भी जस की तस बनी हुई है। यकीनन इस तरह की समस्यायों में हमेशा असंतोष के बीज होते हैं, जिनमें विद्रोह करने की क्षमता होती है। इन्हीं असंतोषों की वजह से ही नक्सलवादी सोच को बढ़ावा मिल रहा है। इससे बड़ी विडम्बना ये है कि हमारी सरकारें शायद इस समस्या के सभी संभावित पहलुओं पर विचार नहीं कर रही। लिहाज़ा अभी लंबा सफर तय करना बाकी है।

नक्सली समस्या से निपटने में प्रशासनिक दिक्कतें क्या-क्या हैं?

  • बुनियादी ढांचा का अभाव
  • प्रशिक्षित मानव संसाधनों और संचार सुविधाओं की कमी
  • नक्सलियों द्वारा अंतर्राज्यीय सीमा का लाभ उठाना
  • केंद्र और राज्यों और राज्यों के बीच आपसी समन्वय का अभाव

शहरी नक्सलवाद क्या है?

पिछले कुछ साल में शहरी नक्सलवाद या अर्बन नक्सलिज़्म शब्द बड़ी तेजी से सामने आया है। शहरी नक्सलवाद से मतलब, उन शहरी आबादी में रहने वाले लोगों से हैं जो प्रत्यक्ष तौर पर तो नक्सलवादी नहीं है, लेकिन वो नक्सलवादी संगठनों के प्रति और उनकी गतिविधियों के प्रति सहानुभूति रखते हैं। कई इन बार इन पर मदद करने का भी आरोप लगता रहा है।

आगे क्या किया जाना चाहिए?

संविधान की पाँचवीं अनुसूची में अनुसूचित क्षेत्रों में ट्राइबल एडवाइजरी कौंसिल की स्थापना की बात की गई है। सरकारों को इस पर ध्यान देना होगा। आदिवासियों को अधिकार नहीं मिलने के कारण भी इनमें असंतोष पनपता है और नक्सली इसी का फायदा उठाकर आदिवासियों को गुमराह करते हैं।

  • इसी तरह 1996 के पेसा क़ानून, बैकवर्ड रीजन ग्रांट फण्ड जैसे कार्यक्रमों को सही रूप से लागू करने की ज़रूरत है।
  • गरीबी, भुखमरी और बेरोज़गारी जैसे मसलों पर और बारीकी से काम करना होगा, तभी इस समस्या से निजात मिल पायेगी।
  • स्थानीय लोगों को भरोसे में लेना और हथियार उठा चुके लोगों से बात कर मसले का हल निकालने की कोशिश करनी होगी।